आज़ादी में मदरसों का रोल और हमारी सरकारों का रवैया’

आज़ादी में मदरसों का रोल और हमारी सरकारों का रवैया’
Role of madrasas in independence and attitude of our governments

कलीमुल हफ़ीज़

मदारिसे इस्लामिया पर हमले कोई नई बात नहीं हैं। यह हमारी बदक़िस्मती है कि हमारी सरकारें ऐसे मुद्दे उछालती हैं जिनसे अवाम का कोई लेना देना नहीं होता, मुमकिन है कि उन्हें इससे वक़्ती तौर से कोई फायदा हो जाए, लेकिन परमानेंट फ़ायदे की उम्मीद नामुमकिन है, क्योंकि भारत की मिट्टी में ना नफ़रत है ना ही इस ने नफ़रत के सौदागरों को कभी जगह दी है। यह इतना अज़ीम मुल्क है जिसके बारे में अल्लामा इक़बाल जो ख़ुद मदरसे से तरबियत याफ़्ता थे फ़रमाते हैं

मीरे अरब को आई ठंडी हवा जहां से,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है।

आप सोचें कि इन्हीं मदरसे का फ़ारिग़ जब श्री रामचंद्र जी का ज़िक्र करता है तो वह उन्हें ‘इमामुल हिंद’ और ‘चिराग़-ए-हिदायत’ भी बताता है। अगर हमारे मौजूदा रहनुमाओं ने अल्लामा इक़बाल को ही पढ़ लिया होता तो शायद वह अपनी बद नीयत से बाज़ आ जाते। यहां इस बात की वज़ाहत ज़रूरी है कि अगर कोई इंसान यह समझता है कि वह मदारिस पर हमला करके इस्लाम को कुछ नुकसान पहुंचा सकता है तो यह उसकी ग़लत सोच है, उसे क़ुरआन ए मुक़द्दस पढ़ना चाहिए जिसमें साफ़ साफ़ बयान किया गया है। मफ़हूम कुछ यूँ है

नूरे ख़ुदा है कुफ़्र की हरकत पे ख़न्दाज़न,
फूंकों से यह चिराग़ बुझाया न जाएगा।

इसलिए किसी को ऐसी ग़लतफ़हमी नहीं होनी चाहिए, चाहे वह आम हो या ख़ास कि वह इस्लाम का कुछ नुक़सान कर सकता है।

मौजूदा दौर में दलितों, आदिवासियों, कमज़ोरों और अल्पसंख्यकों ख़ासकर मुसलमानों पर या उनकी शिनाख़्त पर हो रहे सरकारी और ग़ैर सरकारी हमलों से यह बात तो बिल्कुल साफ़ हो जाती है कि हमारे मुल्क के निर्माताओं को इस बात का अच्छी तरह पता था कि आने वाली दहाइयों में कुछ ऐसे लोग सत्ता में आएंगे जो मुल्क की रूह पर वार करेंगे, इसीलिए उन्होंने संविधान में इस बात की ज़मानत दी कि अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के इदारे बनाने, चलाने और संवारने का पूरा पूरा हक़ है, बावजूद इसके कि सरकार उनकी मदद करती हो।

अच्छी बात यह है कि यह आर्टिकल 30 संविधान का वह हिस्सा है जिसे बदला नहीं जा सकता। इसलिए आपने पिछले दिनों देखा होगा कि सीधे-सीधे संविधान पर हमले किए गए, यहां तक कि उस की कापियां जलाई गयीं और उस को बदलने की बात हुई, ताकि उस की रूह को ख़त्म किया जा सके। इसलिए हमें हालात की गंभीरता को समझते हुए संविधान की रूह को आगे ले जाने की जरूरत है।

साउथ से लेकर नार्थ और नार्थ ईस्ट तक ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं में कंपटीशन चल रहा है कि कौन कितना ज़हर मुसलमानों के ख़िलाफ़ उग़ल सकता है, ताकि उसका प्रमोशन उसकी गाली के हिसाब से हो। यह बदक़िस्मती ही कही जाएगी कि दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे प्रवेश वर्मा और हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे अनुराग ठाकुर जैसे पढ़े-लिखे क़ाबिल लोगों ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ जो कुछ कहा है उसकी इजाज़त भारत जैसे सभ्य देश में कम से कम नहीं दी जा सकती। पढ़े-लिखे लोग अगर यह सब करेंगे तो नादान लोगों से फिर किस बात की उम्मीद की जाए?

इसी रास्ते को अख़्तियार किया योगी जी ने, जबकि योगियों की अज़मत से गीता भरी पड़ी है, मगर हमारे योगी जी ने श्री कृष्ण के रास्ते से हट कर काम किया और मुसलमानों के घरों को अदालती फ़ैसलों के बग़ैर बुलडोज़ करने का फ़रमान जारी कर दिया, ताकि वह हिंदू हृदय सम्राट बन सकें, इसी को दोहराते हुए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी पीछे नहीं रहे, उन्होंने भी अदालत की इजाज़त लिए बग़ैर ग़रीब मुसलमानों के आशियानों पर बुलडोज़र चलवा दिया। फिर उससे दो क़दम आगे बढ़ते हुए आसाम के मुख्यमंत्री ने तो शिक्षण संस्थानों (मदरसों) को बुलडोज़ करने का यह कहकर जवाज़ निकाल लिया कि वहां डाउटफुल लोग रहते हैं। सवाल यह है कि किस अदालत ने यहां रहने वाले कुछ लोगों को डाउटफुल कहा, वह ख़ुद ही जज बन गए और मदरसों को बुलडोज़ करने का फ़रमान सुना दिया।

अगर शक की बुनियाद पर सरकार अदालत के फ़ैसले के बिना कोई कार्यवाही करती है तो फिर ऐसे अनगिनत लोग मिल जाएंगे जिन में संघ के लोग भी शामिल हैं, उन पर शक किया गया, ख़ुद हमारी आर्मी के कुछ लोग शक के घेरे में आये, बहुत से मठ के पुजारियों और दूसरे धर्म गुरुओं पर गंभीर आरोप लगाए गए, क्या सब के संस्थानों को बुलडोज़ करेगी सरकार?  यकीनन नहीं!  तो फिर कमज़ोर और ग़रीबों की इबादत और दर्सगाहों को बर्बाद कर के इसे क्या मिलेगा? अगर माज़ी में सरकारों ने इस तरह का रवैया अपनाया होता तो फिर राजा राममोहन राय जैसे लोग किस मदरसे में फ़ारसी और अरबी पढ़ने जाते?
[10:02 PM, 9/7/2022] Eng Kalimul-hafiz Rivetview: सच्चर कमेटी की रिपोर्ट हमें यह बताती है कि सिर्फ़ 4 % मुसलमान बच्चे ही मदरसों में पढ़ते हैं, 96 % जो मदरसों में नहीं पढ़ते, सरकार को उनकी कोई ख़बर नहीं है। विडंबना यह है कि सरकार की तरफ़ से बार बार कहा गया कि वह मदरसों की मदद और उनको मॉर्डनाइज़ करना चाहती है, लेकिन यह सब झूठ है।

बदक़िस्मती यह है कि आज हमारे लिए पाकिस्तान जैसे ग़रीब और कमज़ोर देश को बेंच मार्क के तौर पर पेश किया जा रहा है जबकि कल तक अमेरिका और जापान हमारे बेंच मार्क हुआ करते थे। मुल्क के जो बुनियादी मसाइल हैं उन से आंख मूंदकर सरकार मदरसों के पीछे पड़ गई है और तकलीफ़ की बात ये है कि प्रधानमंत्री जी ख़ामोश हैं। बीते 5 सालों में जिन मदारिस के लोगों को तन्ख़्वाहें नहीं मिलीं, उन में से कई लोगों ने ख़ुदकुशी कर ली, बड़ी बात यह है कि ख़ुदकुशी करने वालों में हिंदू टीचर भी शामिल हैं, उसके बावजूद सरकार उनकी समस्या पर कुंडली मारे बैठी हुई है। इससे ही सरकार की कथनी और करनी में कितना अंतर है समझ लेना चाहिए।

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक़ रामपुर में वज़ीरे आला योगी के दौरे के दौरान ज़ोहर की अज़ान माइक पर नहीं देने दी गई, क्या यही क़ानून और संविधान की बालादस्ती है या संघी एजेंडा? अभी हाल ही में हम ने देखा कि किस तरह पश्चिमी यूपी में नमाज़ पढ़ने पर FIR हो गई और उसपर एक लीडर मर्दे मोमिन को छोड़कर पूरे देश में ख़ामोशी रही, इस सिम्त में भी हमें सोचने की ज़रूरत है।

जहां तक रही बात मदारिस के सर्वे की तो सरकार सर्वे के बहाने आख़िर क्या करना चाहती है? ख़बर यह है कि एनसीपीसीआर की रिपोर्ट पर सरकार ये सर्वे करा रही है। सिर्फ़ मदरसों का ही सर्वे क्यों? मठों या दूसरे धार्मिक शिक्षण संस्थानों का सर्वे क्यों नहीं? सवाल यह है कि जब UDISE का डाटा पहले ही ज़िला सतह पर मौजूद है तो फिर नये सर्वे से डाटा इकट्ठा करने का मतलब क्या है वो भी गाजे बाजे के ऐलान के साथ? क्या ये आर एस एस के किसी एजेंडे को लागू करना है?

मदारिस के लोगों की ज़िम्मेदारी है कि वह अपने मक़सद को पहचानें और ग़ौर करें कि वह आज मौलाना आज़ाद जैसे लोग पैदा करने से क़ासिर क्यों हैं? दुनिया की अज़ीम इस्लामिक यूनिवर्सिटी जामिया अज़हर से लेकर देवबंद तक की शुरुआत एक मस्जिद से ही हुई है,मोरक्को की फ़ातिमा अलफ़ेहरिया अलकरशिया ने दुनिया को डिग्री का निज़ाम दिया। दिल्ली में मौजूद जामिया रहमानिया के उलेमाओं ने अंग्रेज़ों के दांत खट्टे कर दिए, फिर आज हम अपनी अज़ीम तारीख़ को दोहराने से क़ासिर क्यों हैं? अपने रास्तों को हमें और मज़बूत बनाना है, अभी वक़्त है कि तमाम मकातिब ए फ़िक्र के उलेमा सर जोड़ कर बैठें, जिस तरह जब नदवा पर मुसीबत आयी थी तो मसलक से ऊपर उठ कर मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी जैसे उलेमा आगे आये और मज़हब को आगे रखा।

एक हो जाएं तो बन सकते हैं ख़ुर्शीदो मुबीन,
वरना इन बिखरे हुए तारों से क्या बात बने।

हमें अपने देशवासियों को यह बताने की ज़रूरत है कि जो हमें आज़ादी मिली है उस में सबसे बड़ा रोल मदरसों का है। अगर अल्लामा फ़ज़ले हक़ खै़राबादी का फ़तवा, तहरीक ए शहीदैन, तहरीक ए रेशमी रुमाल और उलेमा ए सादिकपुर की क़ुर्बानियाँ न होतीं तो आज हम आज़ाद फ़िज़ा में सांस ना ले रहे होते, इसलिए हमें उलेमा और मदारिस दोनों को महत्व देना होगा। हमें यह समझाना होगा कि ये मदरसे, जहां से मानवता और प्रेम का संदेश दिया जा रहा है, देश की बुनियादी जरूरत हैं, जो राष्ट्र निर्माण में सबसे आगे हैं।

कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली