ज्ञानवापी: मायूस ना हो इरादे ना बदल | क़ुदरत के बताए रास्ते पर चल

Gyanvapi: Do not be disappointed | do not change your intentions walk on the path of nature

ज्ञानवापी: मायूस ना हो इरादे ना बदल | क़ुदरत के बताए रास्ते पर चल

ज्ञानवापी मस्जिद के मामले में जिस तरह की सियासत शुरू हुई है, उसने एक बार फिर बाबरी मस्जिद के ज़ख़्मों को ताज़ा कर दिया है. शुरू में ऐसा लगा था कि मामला वक़्त के साथ हल हो जाएगा लेकिन सिविल कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जिस तरह इस मामले को खींचा गया उससे यह बात साफ़ हो गई कि बाबरी मस्जिद के रास्ते पर ही यह मामला भी चल पड़ा है. मुस्तक़बिल में इस मामले में क्या होगा, इसका इल्म तो सिर्फ़ इस संसार के बनाने वाले के पास ही है, लेकिन हालात का इशारा भी समझने की ज़रूरत है.

जिस तरह की बहस हिजाब के मामले में सुप्रीम कोर्ट में चल रही है, उससे इस बात की उम्मीद बेहद कम है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला हिजाब के हक़ में आएगा. तीन तलाक़ के मामले में हम पहले ही अदालत का फ़ैसला…

वाराणसी के ज़िला जज साहब ने जो फ़ैसला सुनाया है उससे अलग फ़ैसले की उम्मीद नहीं थी. जब सिविल जज ने वीडियोग्राफ़ी और सर्वे का फ़ैसला दिया था और जिस तरह से वकील साहब ने गुल खिलाते हुये बीमारी का बहाना बनाकर खेल किया था तभी यह बात समझ में आ गई थी कि जिस तरह रात के अंधेरे में बाबरी मस्जिद में मूर्तियों को प्रकट करा दिया गया, उसी तरह दिन के उजाले में यहां भी शिवलिंग का ज़ुहूर हो गया और फिर गोदी मीडिया ने रही सही क़सर पूरी कर दी थी. ज़िला जज ने अपने 26 पन्नों के आर्डर में जिस तरह से मस्जिद इंतेज़ामिया कमेटी की सभी दलीलों को ख़ारिज करते हुये कहा कि यह केस सुनने के लायक़ है उससे यह बात साफ़ हो जाती है कि आख़िरी फ़ैसला क्या होने वाला है.

ख़ैर ! अल्लाह दिलों को बदलने वाला है, भरोसा उसी पर है. अदालत ने अपने फ़ैसले में कहा कि 1983 में यूपी सरकार ने काशी विश्वनाथ टेंपल एक्ट पास किया था, जिसके सेक्शन 4 सब क्लाज़ 11 के हिसाब से प्रॉपर्टी मंदिर परिसर में है और 1991 का एक्ट इस को कवर नहीं करता है. अदालत में मस्जिद कमेटी ने कहा कि यह वह प्रॉपर्टी वक़्फ़ की है और ख़सरे में मौजूद है, अदालत इस को इस तरह नहीं सुन सकती है. इस पर जज साहब ने कहा कि कई अदालतों के फ़ैसले पहले से मौजूद हैं कि महज़ रेवेन्यू रिकॉर्ड में एंट्री से मिल्कियत साबित नहीं होती. मस्जिद इंतेज़ामिया की तरफ़ से जो भी दलील दी गई वह अदालत में टिक नहीं सकी.

अदालत की तरफ़ से कहा गया कि 1991 का एक्ट नेचर को बदलने से मना करता है, यह जगह मस्जिद है या मंदिर उसका फ़ैसला कैसे होगा? इस के फ़ैसले के बाद 1991 का एक्ट इस पर लागू होगा. ज़ाहिर सी बात है कि अदालत ने अपने फ़ैसले से एक पंडोरा बॉक्स खोल दिया है. इस के बाद इस तरह के सैकड़ों मामले अदालत में आएंगे. वैसे भी 1991 के एक्ट को स्ट्राइक डाउन किया जा सकता है, उसको रिपील किया जा सकता है, उसको बदला जा सकता है. क़ानून के माहेरीन इस एक्ट में ख़ामियाँ भी बता रहे हैं. यह एक्ट बनाया गया था तमाम तरह के झगड़ों के दरवाज़े बंद करने के लिए, लेकिन ज़िला जज साहब के फ़ैसले ने झगड़ों की राह खोल दी है. अभी हाल ही में बदायूं की तारीख़ी मस्जिद जो ग़ुलाम वंश में बनी, को मंदिर बताने वाली अर्ज़ी को सुनने योग्य बता कर कई तरह के झगड़ों के दरवाज़े खोल दिए गए हैं.

अब आप ख़ुद सोच लीजिए! बाबरी मस्जिद मामले में 1991 के एक्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जो बातें कही थीं, उस पर भी सुप्रीम कोर्ट में ही 3 जजो की बेंच सुनवाई कर रही है. अगर बेंच ने फ़ैसला अब्ज़र्वेशन के ख़िलाफ़ दिया तो क्या होगा? इसलिए हमारी सरकारों के लिए ज़रूरी है कि वह मुल्क में अम्न के क़याम के लिए आगे आएं और बीजेपी के नेता ख़ुद पार्लियामेंट में कह चुके हैं कि सरकारों की मर्ज़ी के बगै़र पत्ता भी नहीं हिलता.

हमने मथुरा के मामले में देखा कि ईदगाह और श्री कृष्ण जन्मभूमि का समझौता सरकारों के हस्तक्षेप के साथ बेहतर ढंग से हो गया था. जब काशी कॉरिडोर में सरकार ने दिलचस्पी दिखाई तो मस्जिद से एक प्लॉट लिया भी और उसके बदले में एक प्लॉट दिया भी. बात साफ़ है कि सरकारों की मर्ज़ी जब जब शामिल रही, झगड़े आसानी से ख़त्म हो गए. अदालतों से तो कुछ लोगों की हार जीत हो सकती है, लेकिन सरकारों की निष्पक्ष कोशिशों से मुल्क में अमन और शांति स्थापित होती है.

बहुसंख्यक समाज की भी ज़िम्मेदारी है कि वह बाबरी मस्जिद के बाद इस तरह के तनाव को ख़त्म करने के लिए सामने आए ताकि देश इन झगड़ों से आगे निकल कर तरक़्क़ी कर सके. हमें भी आंख कान नाक तीनों खोल कर रखने की ज़रूरत है. जज़्बात की जगह जोश और होश दोनों की ज़रूरत है. वरना इशारे बहरहाल बेहतर नहीं हैं, क्योंकि जिस रास्ते की तरफ़ देश को धकेला जा रहा है, उसमें किसी के लिए भी ख़ैर नहीं है और अभी 2024 इम्तेहान भी देना है.

कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली