साम्प्रदायिक हिंसा का नासूर

Canker of communal violence

साम्प्रदायिक हिंसा का नासूर
Canker of communal violence

 – राम पुनियानी

पिछले दो महीनों (अक्टूबर-नवम्बर 2012) में देश के अलग-अलग हिस्सों में हुई साम्प्रायिक हिंसा विचलित कर देने वाली है. उत्तरप्रदेश, असम और हैदराबाद में साम्प्रदायिक हिंसा और तनाव जारी है. उत्तरप्रदेश में अखिलेश यादव सरकार के सत्ता में आने के बाद से हिंसक घटनाओं का एक अनवरत सिलसिला चल रहा है.

समाजवादी पार्टी ने मार्च 2012 में उत्तरप्रदेश में सत्ता संभाली. तब से लेकर अभी तक मथुरा, प्रतापगढ़, बरेली, मेरठ, इलाहबाद और लखनऊ में साम्प्रदायिक ंिहंसा की घटनाएं हो चुकी हैं. इस सिलसिले की सबसे ताजा घटना फैजाबाद में हुई. गत 24 अक्टूबर को जिस समय दुर्गा की मूर्तियों को जुलूस के रूप में विसर्जन के लिए ले जाया जा रहा था, उसी समय एक लड़की के साथ कुछ बदमाशों ने दुव्र्यवहार किया. इसे मुद्दा बनाकर कुछ लोगों ने आसपास के इलाकों में पत्थरबाजी शुरू कर दी. फैजाबाद में यह अफवाह उड़ा दी गई कि पत्थरबाजी मुसलमानों द्वारा की जा रही है. इसके बाद एक हिंसक भीड़ ने मुस्लिम व्यापारियों की कम से कम 25 दुकानों को आग के हवाले कर दिया. एक द्विभाषी (उर्दू व हिन्दी) अखबार ‘आपकी ताकत‘ के कार्यालय में जम कर तोड़फोड़ की गई. यह अखबार लगातार शांति और हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करता रहा है. भीड़ ने एक मस्जिद में भी तोड़फोड़ की.

सामाजिक कार्यकर्ता युगलकिशोर शरण शास्त्री के अनुसार, अखबार के दफ्तर पर हमला सुनियोजित था. अखबार के संपादक मंजर मेंहदी का मानना है कि यह शांति की आवाज को कुचलने का प्रयास है. पुलिस जानबूझकर घटनास्थल पर देरी से पहुंची और पहुंचने के बाद भी उसने प्रभावी कार्यवाही नहीं की. फायर ब्रिगेड ने घटनास्थल तक पहुंचने में चार घंटे लगा दिए और तब तक सभी दुकानें पूरी तरह जलकर खाक हो चुकीं थीं.

उधर, सुदूर असम में हिंसा एक बार फिर शुरू हो गई और 6 लोगों को अपनी जान खोनी पड़ीं. ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही थी कि कहीं एक बार फिर हिंसा वही भयावह रूप धारण न कर ले, जैसा कि उसने जुलाई 2012 में कर लिया था और जिसके बाद लगभग चार लाख लोगों (मुख्यतः मुसलमानों) को शरणार्थी शिविरों में शरण लेनी पड़ी थी और 60 लोग मारे गए थे. असम में हुई हिंसा इस दृष्टि से अन्य स्थानों पर होने वाले साम्प्रदायिक दंगों से भिन्न थी कि वहां विस्थापित हुए लोगों की संख्या बहुत अधिक थी और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि हिंसा का उद्धेश्य बोडो क्षेत्रों में निवासरत सभी मुसलमानों को वहां से खदेड़ना था. जहां तक पुनर्वास का प्रश्न है, उसमें बहुत भेदभाव हो रहा है. मुसलमानों के पास कई कारणों से कुछ दस्तावेज नहीं हैं और इस कारण उन्हें पुनवर्सित नहीं किया जा रहा है. असम की हिंसा में पुलिस ने मूकदर्शक की भूमिका निभाई और झूठे प्रचार अभियान का इस्तेमाल हिंसा भड़काने के लिए किया गया. यह प्रचारित किया गया कि राज्य में रह रहे मुसलमान दरअसल बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं और वे बोडो रहवासियों की जमीनों पर अतिक्रमण करते जा रहे हैं. इस मिथक के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है.

मुसलमानों ने असम में 18वीं सदी से बसना शुरू किया और इसके पीछे थी ब्रिटिश शासन की नीति, जिसके अन्तर्गत बंगाल पर जनसंख्या के बढ़ते दबाव को कम करने के लिए बहुत कम जनसंख्या घनत्व वाले असम में लोगों को बसाया गया था. समाज में गहरे तक पैठ कर चुकी गलत धारणाओं के कारण मुसलमानों-जो कि असम और भारत के संपूर्ण नागरिक हैं-के खिलाफ हिंसा हुई और साम्प्रदायिक ताकतों ने इसका पूरा लाभ उठाया.

तीसरी घटना दक्षिण भारत के आंध्रप्रदेश में हुई. हैदराबाद में ऐतिहासिक चारमीनार को नुकसान पहुंचाने के लिए उसके सामने स्थित भाग्यलक्ष्मी मंदिर के पुनरूद्धार का काम शुरू किया गया है. यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के नियमों का उल्लंघन है. एएसआई लगातार यह कह रहा है कि मंदिर में नए निर्माण से चारमीनार को क्षति पहुंचेगी परंतु उसकी बात कोई नहीं सुन रहा है. हैदराबाद के पुराने शहर और विशेषकर ऐतिहासिक चारमीनार इलाके में रहने वाले लोगों में चारमीनार को अपवित्र करने की इस कोशिश के विरूद्ध बहुत गुस्सा है. इस मामले में कई हिंसक झड़पें हो चुकी हैं जिनमें अनेक लोग घायल हुए हैं. इस इलाके में कई बार कफ्र्यू भी लगाया जा चुका है.

ये तीनों घटनाएं यह बताती हैं कि साम्प्रदायिक हिंसा क्यों और कैसे होती है. इन तीनों ही मामलों में हिंसा पूर्व नियोजित थी. महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार की अफवाह का इस्तेमाल फैजाबाद में हिंसा भड़काने के लिए किया गया. फैजाबाद में अल्पसंख्यकों को डराया-धमकाया गया, उनकी दुकानों में आग लगा दी गई और द्विभाषी अखबार ‘आपकी ताकत‘ के कार्यालय में तोड़फोड़ की गई. ये तीनों तथ्य साम्प्रदायिक हिंसा की मूल प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं. ‘आपकी ताकत‘ उर्दू और हिन्दी में प्रकाशित होता है. इस अखबार की मान्यता है कि हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई हैं और हिन्दी और उर्दू, बहनें. यह अखबर अयोध्या में शांति का पैरोकार रहा है और उस साम्प्रदायिक राजनीति का कट्टर विरोधी, जिसके चलते बाबरी मस्जिद को ढ़हाया गया था. उत्तर प्रदेश में सरकार पर समाजवादी पार्टी का पूर्ण नियंत्रण है. इसके बावजूद वहां साम्प्रदायिक हिंसा क्यों हो रही है? समाजवादी पार्टी का हमेशा से यह दावा रहा है कि वह धर्मनिरपेक्ष है और पूर्व में कई बार धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों की रक्षा के लिए वह आगे भी आई है. क्या राज्य में कुछ ऐसी शक्तियां उभर आई हैं जो समाजवादी पार्टी के नियंत्रण से बाहर हैं? या फिर क्या समाजवादी पार्टी को साम्प्रदायिक ंिहंसा से कुछ राजनैतिक लाभ मिलने की उम्मीद है? इन प्रश्नों का उत्तर स्पष्ट नहीं है अलबत्ता यह साफ है कि उत्तरप्रदेश पुलिस की साम्प्रदायिक हिंसा को नियंत्रित करने में रूचि नहीं है. पुलिस ने तब भी कार्यवाही नहीं की जब वह आसानी से दंगाईयों पर काबू पा सकती थी. पुलिस ने या तो दंगाईयों की मदद की या चुपचाप हिंसा होते देखती रही.

हैदराबाद में एक ऐतिहासिक इमारत का इस्तेमाल साम्प्रदायिक तनाव फैलाने के लिए किया जा रहा है. जिस सुनियोजित ढंग से राममंदिर आंदोलन के नाम पर साम्प्रदायिक उन्माद उत्पन्न किया गया था और बाबरी मस्जिद को ढहाया गया था उससे यह आशंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि हैदराबाद में भी ऐसा कुछ हो सकता है. अयोध्या की बाबरी मस्जिद भी एक ऐतिहासिक इमारत थी और एएसआई के नियंत्रण में थी परंतु उन्मादी भीड़ ने उसे दिनदहाड़े, सुरक्षाबलों के सामने जमींदोज कर दिया.

साम्प्रदायिक हिंसा का जारी रहना इस बात का सुबूत है कि उन मूल कारकों से निपटने की प्रभावी कोशिश नहीं की जा रही है जो इस हिंसा का कारण हैं. सामाजिक कार्यकर्ता और अध्येता बार-बार जोर देकर यह कहते रहे हैं कि साम्प्रदायिक हिंसा के पीछे फिरकापरस्त ताकतें, राज्यतंत्र की उदासीनता और अल्पसंख्यकों के खिलाफ समाज में फैलाई गई दुर्भावना की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है. यह साफ है कि जब तक इस समस्या से उसकी संपूर्णता में नहीं निपटा जाता तब तक हमारे देश में साम्प्रदायिक दंगे होते रहेंगे और अल्पसंख्यक इसका खामियाजा भुगतते रहेंगे. इस हिंसा ने एक बार फिर इस तथ्य को रेखांकित किया है कि हमारे देश को एक प्रभावी और संतुलित साम्प्रदायिक हिंसा निरोधक कानून की आवश्यकता है. कोई प्रजातांत्रिक व्यवस्था तब तक सफल नहीं कही जा सकती जब तक वहां के अल्पसंख्यक असुरक्षित हैं और उन्हें आगे बढ़ाने के एकसमान अवसर प्राप्त नहीं हैं. ये घटनाएं हमें एक बार फिर याद दिलाती हैं कि जो लोग शांतिपूर्ण, धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक समाज में विश्वास रखते हैं और ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं, उन्हें एकमत होकर उन ताकतों के खिलाफ मोर्चा संभालना होगा जो साम्प्रदायिकता की आक्सीजन पर जीवित हैं. हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि समाज में फैली गलत धारणाएं और मान्यताएं दूर हों और सद्भाव का वातावरण निर्मित हो. हमें सरकार पर इस बात के लिए दबाव बनाना होगा कि साम्प्रदायिक हिंसा निरोधक कानून जल्दी से जल्दी बनाया जाए ताकि राजनैतिक नेतृत्व और प्रशासन द्वारा दंगों में भागीदारी या उन्हें रोकने में असफलता को दंडनीय अपराध घोषित किया जा सके.

-प्रस्तुति व अनुवादः एल.एस. हरदेनिया